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शहर में एक अजब ख़ाक-ब-सर आया है | शाही शायरी
shahr mein ek ajab KHak-ba-sar aaya hai

ग़ज़ल

शहर में एक अजब ख़ाक-ब-सर आया है

महशर बदायुनी

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शहर में एक अजब ख़ाक-ब-सर आया है
कोई उफ़्ताद पड़ी है कि इधर आया है

ये तो उस शहर के रस्ते भी समझते होंगे
आने वाला बड़ी राहों से गुज़र आया है

कौन जोगी है कहीं जिस का बसेरा न पड़ाव
क्या मुसाफ़िर है कि बे-शाम-ओ-सहर आया है

कैसा वहशी है कि वहशत की हदें तोड़ गया
कोई सहरा की तरफ़ जा के भी घर आया है

हर ख़म-ए-जादा खुला सूरत-ए-गेसू कैसा
हर ख़त-ए-संग में क्या तुझ को नज़र आया है

बज़्म-ए-याराँ निगराँ ग़ोल-ए-हरीफ़ाँ रक़्साँ
इक तमाशा ब-तमाशा-ए-दीगर आया है

ज़िंदगी करने लगी शहर के हल्क़े में तवाफ़
रास्ता कोह से दरिया में उतर आया है

कब उठा बार-ए-करम लेकिन उठा है इस बार
वक़्त गर्दिश में कब आया था मगर आया है

वही इम्कान-ए-ग़ुरूब और वही सामान-ए-तुलू
या सफ़र ख़त्म है या वक़्त-ए-सफ़र आया है