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शहर में छाई हुई दीवार-ता-दीवार थी | शाही शायरी
shahr mein chhai hui diwar-ta-diwar thi

ग़ज़ल

शहर में छाई हुई दीवार-ता-दीवार थी

अशहर हाशमी

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शहर में छाई हुई दीवार-ता-दीवार थी
एक पथरीली ख़मोशी पैकर-ए-गुफ़्तार थी

बादलों की चिट्ठियाँ क्या आईं दरियाओं के नाम
हर तरफ़ पानी की इक चलती हुई दीवार थी

इंकिशाफ़-ए-शहर-ए-ना-मालूम था हर शेर में
तजरबे की ताज़ा-कारी सूरत-ए-अशआर थी

आरज़ू थी सामने बैठे रहें बातें करें
आरज़ू लेकिन बेचारी किस क़दर लाचार थी

घर की दोनों खिड़कियाँ खुलती थीं सारे शहर पर
एक ही मंज़र की पूरे शहर में तकरार थी

आँसुओं के चंद क़तरों से थी तर पूरी किताब
हर वरक़ पर एक सूरत माएल-ए-गुफ़्तार थी

उस से मिलने की तलब में जी लिए कुछ और दिन
वो भी ख़ुद बीते दिनों से बर-सर-ए-पैकार थी