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शहर को चोट पे रखती है गजर में कोई चीज़ | शाही शायरी
shahr ko choT pe rakhti hai gajar mein koi chiz

ग़ज़ल

शहर को चोट पे रखती है गजर में कोई चीज़

तफ़ज़ील अहमद

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शहर को चोट पे रखती है गजर में कोई चीज़
बिल्लियाँ ढूँढती रहती हैं खंडर में कोई चीज़

चाक हैं ज़ख़्म के पानी में हवा में नासूर
मुट्ठियाँ तोल के निकली है सफ़र में कोई चीज़

बारहा आँखें घनी करता हूँ उस पे फिर भी
छूट रहती है निगह से गुल-ए-तर में कोई चीज़

कभी बैठक से रसोई कभी दालान से छत
बावली फिरती है तुझ बिन मिरे घर में कोई चीज़

ज़िंदगी आग पे लेटी हुई परछाईं है क्या
बस धुआँ देती है हर वक़्त जिगर में कोई चीज़

शहर-ए-सानी में शजर-कारी न की दानिस्ता
फिर निकल आए कहीं बर्ग-ओ-समर में कोई चीज़

हश्र तक जीती रहेंगी मिरी ग़ज़लें तफ़ज़ील
ऑक्सीजन सी लबालब है हुनर में कोई चीज़