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शहर के लोग जिसे तेरी सितम-ज़ाई कहें | शाही शायरी
shahr ke log jise teri sitam-zai kahen

ग़ज़ल

शहर के लोग जिसे तेरी सितम-ज़ाई कहें

सफ़दर सलीम सियाल

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शहर के लोग जिसे तेरी सितम-ज़ाई कहें
हम बहर-हाल उसे अपनी पज़ीराई कहें

तेरे अहबाब हमें ग़ैर समझते ही रहे
तेरे दुश्मन हमें अब तक तिरा शैदाई कहें

ये शरफ़ भी तिरी चाहत में मिला है हम को
तेरे सब चाहने वाले हमें सौदाई कहें

हम सजाते हैं शब-ओ-रोज़ तिरे ज़िक्र के साथ
हम क़फ़स में भी वही नग़्मा-ए-सहराई कहें

लाख टूटे हैं सुरों पर तिरी उल्फ़त में पहाड़
तेरे दीवाने पहाड़ों को मगर राई कहें

तुझ को शिकवा है यहाँ आ के तुझे भूल गए
हम भला किस से क़फ़स में ग़म-ए-तंहाई कहें

हम ने चाहा तुझे ज़िंदाँ की सलाख़ों के एवज़
इसे नादानी कहें या इसे दानाई कहें