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शहर के दीवार-ओ-दर पर रुत की ज़र्दी छाई थी | शाही शायरी
shahr ke diwar-o-dar par rut ki zardi chhai thi

ग़ज़ल

शहर के दीवार-ओ-दर पर रुत की ज़र्दी छाई थी

ताज सईद

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शहर के दीवार-ओ-दर पर रुत की ज़र्दी छाई थी
हर शजर हर पेड़ की क़िस्मत में अब तन्हाई थी

जीने वालों का मुक़द्दर शोहरतें बनती रहीं
मरने वालों के लिए अब दश्त की तन्हाई थी

चश्म-पोशी का किसी ज़ी-होश को यारा न था
रुत सलीब-ओ-दार की इस शहर में फिर आई थी

मैं ने ज़ुल्मत के फ़ुसूँ से भागना चाहा मगर
मेरे पीछे भागती फिरती मिरी रुस्वाई थी

बारिशों की रुत में कोई क्या लिखे आख़िर 'सईद'
लफ़्ज़ के चेहरों की रंगत भी बहुत धुँदलाई थी