शहर का शहर हरीफ़-ए-लब-ओ-रुख़सार मिला
नाम मेरा ही लिखा क्यूँ सर-ए-दीवार मिला
सोचते सोचते धुँदला गए यादों के नुक़ूश
फ़िक्र को मेरे न अब तक लब-ए-इज़हार मिला
मुश्तहर कर दिया इतना तिरी चाहत ने मुझे
नाम घर घर में मिरा सूरत-ए-अख़बार मिला
जिस की क़ुर्बत को तरसता था ज़माना कल तक
आज वो शख़्स अकेला सर-ए-बाज़ार मिला
मेरी सच्चाई को इस वक़्त सराहा तू ने
सर पे जब बाँध के मैं झूट की दस्तार मिला
आँखों आँखों ही में लहराएँ बहारें 'मंज़र'
इक शजर भी न भरे बाग़ में फलदार मिला
ग़ज़ल
शहर का शहर हरीफ़-ए-लब-ओ-रुख़सार मिला
मंज़र अय्यूबी