शहर गुम-सुम रास्ते सुनसान घर ख़ामोश हैं
क्या बला उतरी है क्यूँ दीवार-ओ-दर ख़ामोश हैं
वो खुलें तो हम से राज़-ए-दश्त-ए-वहशत कुछ खुले
लौट कर कुछ लोग आए हैं मगर ख़ामोश हैं
हो गया ग़र्क़ाब सूरज और फिर अब उस के बा'द
साहिलों पर रेत उड़ती है भँवर ख़ामोश हैं
मंज़िलों के ख़्वाब दे कर हम यहाँ लाए गए
अब यहाँ तक आ गए तो राहबर ख़ामोश हैं
दुख सफ़र का है कि अपनों से बिछड़ जाने का ग़म
क्या सबब है वक़्त-ए-रुख़्सत हम-सफ़र ख़ामोश हैं
कल शजर की गुफ़्तुगू सुनते थे और हैरत में थे
अब परिंदे बोलते हैं और शजर ख़ामोश हैं
जब से 'अज़हर' ख़ाल-ओ-ख़द की बात लोगों में चली
आइने चुप-चाप हैं आईना-गर ख़ामोश हैं
ग़ज़ल
शहर गुम-सुम रास्ते सुनसान घर ख़ामोश हैं
अज़हर नक़वी