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शहर-ए-ख़िश्त-ओ-संग में रहने लगा | शाही शायरी
shahr-e-KHisht-o-sang mein rahne laga

ग़ज़ल

शहर-ए-ख़िश्त-ओ-संग में रहने लगा

इस्लाम उज़्मा

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शहर-ए-ख़िश्त-ओ-संग में रहने लगा
मैं भी उस के रंग में रहने लगा

पहले तो आसेब था बस्ती के बीच
अब वो इक इक अंग में रहने लगा

अपनी सुल्ह-ए-दोस्ती लाई ये रंग
वो मुसलसल जंग में रहने लगा

तब जुदा होते न थे अब फ़ासला
दरमियाँ फ़रसंग में रहने लगा

उस से तर्क-ए-गुफ़्तुगू करने के बा'द
सोज़ इक आहंग में रहने लगा

शहर-ए-ख़ुश-पोशाँ को 'अज़्मी' छोड़ कर
वादी-ए-बे-रंग में रहने लगा