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शहर-ए-फ़स्ल-ए-गुल से चल कर पत्थरों के दरमियाँ | शाही शायरी
shahr-e-fasl-e-gul se chal kar pattharon ke darmiyan

ग़ज़ल

शहर-ए-फ़स्ल-ए-गुल से चल कर पत्थरों के दरमियाँ

बशीर फ़ारूक़ी

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शहर-ए-फ़स्ल-ए-गुल से चल कर पत्थरों के दरमियाँ
ज़िंदगी आ जा कभी हम बे-घरों के दरमियाँ

मैं हूँ वो तस्वीर जिस में हादसे भरते हैं रंग
ख़ाल-ओ-ख़त खुलते हैं मेरे ख़ंजरों के दरमियाँ

पहले हम ने घर बना कर फ़ासले पैदा किए
फिर उठा दीं और दीवारें घरों के दरमियाँ

अहद-ए-हाज़िर में उख़ुव्वत का तसव्वुर है मगर
तज़्किरों में काग़ज़ों पर रहबरों के दरमियाँ

उन शहीदान-ए-वफ़ा के नाम मेरे सब सुख़न
सर-बुलंदी जिन को हासिल है सरों के दरमियाँ

कैसा फ़न कैसी ज़ेहानत ये ज़माना और है
सीख लो कुछ शोबदे बाज़ीगरों के दरमियाँ

उड़ गया तो शाख़ का सारा बदन जलने लगा
धूप रख ली थी परिंदे ने परों के दरमियाँ

ये जो ख़ाना है सुकूनत का यहाँ लिख दो 'बशीर'
फूल हूँ लेकिन खिला हूँ पत्थरों के दरमियाँ