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शहर-ए-बे-मेहर में मिलता कहाँ दिलदार कोई | शाही शायरी
shahr-e-be-mehr mein milta kahan dildar koi

ग़ज़ल

शहर-ए-बे-मेहर में मिलता कहाँ दिलदार कोई

साजिदा ज़ैदी

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शहर-ए-बे-मेहर में मिलता कहाँ दिलदार कोई
काश मिल जाता हमें मजमा-ए-अग़्यार कोई

चीर दे क़ल्ब-ए-ज़मीं तोड़ दे ज़ंजीर-ए-ज़माँ
छेड़ अब ऐसा फ़साना-ए-दिल-ए-नादार कोई

नाला-ए-दिल से जिगर होता है छलनी यारब
सब्र करती हूँ तो चल जाती है तलवार कोई

बुझ गई राह-ए-वफ़ा डूब गई सुब्ह-ए-उमीद
ले के अब आएगा क्या वा'दा-ए-दीदार कोई

एक एक कर के हुई बज़्म-ए-मोहब्बत ख़ाली
नज़र आता नहीं अब यार वफ़ादार कोई

जाने किन जब्र की ज़ंजीरों में जकड़ी है हयात
हैं कहीं चारा-ए-वहशत के भी आसार कोई

ये ज़बाँ-ए-बंदी-ए-एहसास ये जब्र हालात
जुर्म है खोले अगर दीदा-ए-बेदार कोई