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शहर-ए-आलाम का शहरयार आ गया | शाही शायरी
shahr-e-alam ka shahryar aa gaya

ग़ज़ल

शहर-ए-आलाम का शहरयार आ गया

नज़र हैदराबादी

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शहर-ए-आलाम का शहरयार आ गया
सर-बरहना मिरा ताजदार आ गया

सुब्ह-ए-ख़ंदाँ लिए रू-ए-ताबाँ लिए
शाम-ए-ग़ुर्बत तिरा ग़म-गुसार आ गया

सब्र अर्ज़ां हुआ जब्र लर्ज़ां हुआ
साहब-ए-शान-ए-सद-इख़्तियार आ गया

नाला-कारो उठो सोगवारो उठो
बे-क़रारो कोई बे-क़रार आ गया

काएनात अपनी है अब हयात अपनी है
ग़मकशो ग़म-ज़दो ग़म-गुसार आ गया

ताज़ा अब ग़म न कर ख़म को अब ख़म न कर
साक़िया हासिल-ए-इंतिज़ार आ गया

जाम छलका दिया शो'ला भड़का दिया
याद आख़िर ज़ुलेख़ा का प्यार आ गया

रात खुलने लगी चाँदनी धुल गई
माह-वश मह-शिकन मह-शिआर आ गया

ज़ख़्म-ए-पिन्हाँ महक ताइर-ए-जाँ लहक
गुल-बदन गुल-जबीं गुल-ए-एज़ार आ गया

बात क्यूँ रोक ली आँख क्यूँ नम हुई
मुझ को देखो मुझे ए'तिबार आ गया

आप सोचें नज़र किस लिए मस्त है
आप के साथ अब्र-ए-बहार आ गया