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शहर भर में कहीं रौनक़ थी न ताबानी थी | शाही शायरी
shahr bhar mein kahin raunaq thi na tabani thi

ग़ज़ल

शहर भर में कहीं रौनक़ थी न ताबानी थी

मुज़फ़्फ़र हनफ़ी

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शहर भर में कहीं रौनक़ थी न ताबानी थी
हर तरफ़ छाई हुई गर्द-ए-परेशानी थी

जब सराबों पे क़नाअत का सलीक़ा आया
रेत को हाथ लगाया तो वहीं पानी थी

सादा-लौही मिरी रखती थी तवक़्क़ो तुझ से
मुझ से उम्मीद लगाए तिरी नादानी थी

क्या बताऊँ कि उसे देख के हैराँ क्यूँ हूँ
एक आईना था आईने में हैरानी थी

अब नदामत के समुंदर में लगाएँ ग़ोते
आरज़ूओं ने कहाँ बात मिरी मानी थी

मुख़्तसर उस को किया है मुतबस्सिम हो कर
वर्ना रूदाद मिरे दर्द की तूलानी थी

ऐ 'मुज़फ़्फ़र' मुझे ता-उम्र रही फ़िक्र-ए-सुख़न
जब कि फ़ुर्सत थी मयस्सर न तन-आसानी थी