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शहर अपना है मगर लोग कहाँ हैं अपने | शाही शायरी
shahr apna hai magar log kahan hain apne

ग़ज़ल

शहर अपना है मगर लोग कहाँ हैं अपने

रज़्ज़ाक़ अफ़सर

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शहर अपना है मगर लोग कहाँ हैं अपने
कहने सुनने को ज़माँ और मकाँ हैं अपने

ये दुआ फ़र्ज़ समझ कर मैं किए जाता हूँ
ख़ैर से ख़ुश रहें अहबाब जहाँ हैं अपने

कब अलग थी मिरी दुनिया से जो जन्नत छोटी
कोई अपना था वहाँ और न यहाँ हैं अपने

आइना मेज़ का अपनी कभी हिस्सा न बना
शहर में कहने को सब शीशा-गराँ हैं अपने

आज के सारे यक़ीं उन के लिए उन के लिए
रंग जो बदलें वो अस्बाब-ए-गुमाँ हैं अपने

अपने चेहरे की ख़बर जिन को नहीं है 'अफ़सर'
उन की आँखों पे सभी ऐब अयाँ हैं अपने