शहर-आशोब लिखूँ शहर-ए-तमन्ना लिक्खूँ
ऐ दयार-ए-ग़म-ए-जानाँ में तुझे क्या लिखूँ
निस्बतें सारी अधूरी हैं तो रिश्ता कैसा
बन के वो मौज उठे ख़ुद को मैं दरिया लिक्खूँ
बे-हिसी इतनी कि मैं ख़ुद से भी बेगाना रहूँ
दर्द इतना है कि बेगानों को अपना लिक्खूँ
हुस्न के रूप हैं इतने कि क़लम हैराँ है
इश्क़ में डूब ही जाऊँ उसे यकता लिक्खूँ
अपने घर की नई तारीख़ के औराक़ पे अब
कहीं दीमक कहीं मकड़ी कहीं जाला लिक्खूँ
इक नज़र सामने दीवार पे चस्पाँ कर के
अपना अंजाम पढ़ूँ उस का सरापा लिखूँ
उम्र-भर एक ही तस्वीर बनाई मैं ने
अपनी आवारा-मिज़ाजी पे 'ज़िया' क्या लिक्खूँ

ग़ज़ल
शहर-आशोब लिखूँ शहर-ए-तमन्ना लिक्खूँ
ज़िया फ़ारूक़ी