शहाब-चेहरा कोई गुम-शुदा सितारा कोई
हुआ तुलू'अ उफ़ुक़ पर मिरे दोबारा कोई
उमीद-वारों पे खुलता नहीं वो बाब-ए-विसाल
और उस के शहर से करता नहीं किनारा कोई
मगर गिरफ़्त में आता नहीं बदन उस का
ख़याल ढूँढता रहता है इस्तिआरा कोई
कहाँ से आते हैं ये घर उजालते हुए लफ़्ज़
छुपा है क्या मिरी मिट्टी में माह-पारा कोई
बस अपने दिल की सदा पर निकल चलें इस बार
कि सब को ग़ैब से मिलता नहीं इशारा कोई
गुमाँ न कर कि हुआ ख़त्म कार-ए-दिल-ज़दगाँ
अजब नहीं कि हो इस राख में शरारा कोई
अगर नसीब न हो उस क़मर की हम-सफ़री
तो क्यूँ न ख़ाक-ए-गुज़र पर करे गुज़ारा कोई
ग़ज़ल
शहाब-चेहरा कोई गुम-शुदा सितारा कोई
इरफ़ान सिद्दीक़ी