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शगुफ़्त-ए-गुंचा-ए-महताब कौन देखेगा | शाही शायरी
shaguft-e-ghuncha-e-mahtab kaun dekhega

ग़ज़ल

शगुफ़्त-ए-गुंचा-ए-महताब कौन देखेगा

सैफ़ुद्दीन सैफ़

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शगुफ़्त-ए-गुंचा-ए-महताब कौन देखेगा
मैं सो गया तो मिरे ख़्वाब कौन देखेगा

कब आएँगी वो घटाएँ जिन्हें बरसना है
मिरे चमन तुझे शादाब कौन देखेगा

ये बादा-ख़्वार नहीं देखते हरम है कि दहर
तुम्हारी बज़्म के आदाब कौन देखेगा

जो शहर हो गए ग़ारत वो किस ने देखे हैं
जो होने वाले हैं ग़र्क़ाब कौन देखेगा

बना रहा हूँ सफ़ीना कि 'सैफ़' मेरे बा'द
बचेगा कौन ये सैलाब कौन देखेगा