शफ़क़ से बाम-ए-फ़लक लाला-गूँ भी होता है
तुलू'अ होने में सूरज का ख़ूँ भी होता है
मिरे क़रीब न आ मुझ से एहतियात बरत
ख़िरद के साथ मुझे कुछ जुनूँ भी होता है
हर एक सर को नहीं रहती हाजत-ए-शाना
कोई कोई सर-ए-नेज़ा फ़ुज़ूँ भी होता है
सुना है मैं ने अज़िय्यत मज़ा भी देती है
सुना है दिल की ख़लिश में सकूँ भी होता है
गए वो दिन कि अजब कैफ़ियत सी रहती थी
मैं सोचता था मोहब्बत में यूँ भी होता है
ग़ज़ल
शफ़क़ से बाम-ए-फ़लक लाला-गूँ भी होता है
बिलाल अहमद