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शफ़क़ जो रू-ए-सहर पर गुलाल मलने लगी | शाही शायरी
shafaq jo ru-e-sahar par gulal malne lagi

ग़ज़ल

शफ़क़ जो रू-ए-सहर पर गुलाल मलने लगी

शकेब जलाली

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शफ़क़ जो रू-ए-सहर पर गुलाल मलने लगी
ये बस्तियों की फ़ज़ा क्यूँ धुआँ उगलने लगी

इसी लिए तो हवा रो पड़ी दरख़्तों में
अभी मैं खिल न सका था कि रुत बदलने लगी

उतर के नाव से भी कब सफ़र तमाम हुआ
ज़मीं पे पाँव धरा तो ज़मीन चलने लगी

किसी का जिस्म अगर छू लिया ख़याल में भी
तो पोर पोर मिरी मिस्ल-ए-शम्अ' जलने लगी

मैं नापता चला क़दमों से अपने साए को
कभी जो दश्त-ए-मसाफ़त में धूप ढलने लगी

मिरी निगाह में ख़्वाहिश का शाइबा भी न था
ये बर्फ़ सी तिरे चेहरे पे क्यूँ पिघलने लगी

हवा चली सर-ए-सहरा तो यूँ लगा जैसे
रिदा-ए-शाम मिरे दोश से फिसलने लगी

कहीं पड़ा न हो परतव बहार-ए-रफ़्ता का
ये सब्ज़ बूँद सी पलकों पे क्या मचलने लगी

न जाने क्या कहा उस ने बहुत ही आहिस्ता
फ़ज़ा की ठहरी हुई साँस फिर से चलने लगी

जो दिल का ज़हर था काग़ज़ पे सब बिखेर दिया
जो अपने आप तबीअ'त मिरी सँभलने लगी

जहाँ शजर पे लगा था तबर का ज़ख़्म 'शकेब'
वहीं ये देख ले कोंपल नई निकलने लगी