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शफ़क़ भी ख़ून की बौछार सी है | शाही शायरी
shafaq bhi KHun ki bauchhaar si hai

ग़ज़ल

शफ़क़ भी ख़ून की बौछार सी है

महताब अालम

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शफ़क़ भी ख़ून की बौछार सी है
ये सुर्ख़ी शहर के अख़बार सी है

कटीले हैं तिरे लफ़्ज़-ओ-बयाँ सब
क़लम ख़ंजर ज़बाँ तलवार सी है

किसी भी चीज़ में लगता नहीं दिल
तबीअ'त बिन तिरे बेज़ार सी है

तुम अपने रूप से ख़ुद आइना हो
तुम्हारे रू-ब-रू क्यूँ आरसी है

ये सारी क़ुर्बतें रस्मी हैं यानी
दिलों के दरमियाँ दीवार सी है

जो हम ख़ुद को मुहाजिर मान भी लें
तो किस की हैसियत अंसार सी है

यहाँ लोगों ने लिख रक्खा है क्या कुछ
फ़सील-ए-शहर भी अख़बार सी है

नज़र आया है फिर 'महताब' कोई
तबीअ'त फिर जुनूँ-आसार सी है