शबीह-ए-रूह कुछ ऐसे निखार दी गई है
अना फ़क़ीरों के कासे पे वार दी गई है
तुम्हारे दिल पे भी कुछ तो असर हुआ होगा
गिरे-पड़े हुए लफ़्ज़ों को धार दी गई है
हमारी आँख के आँसू सुबूत हैं इस का
हँसी हमारे लबों को उधार दी गई है
मिरे बदन के क़फ़स आसमाँ से फिर इस बार
ज़वाल-ए-सुब्ह की सुर्ख़ी गुज़ार दी गई है
बुलंद-क़ामती चुभने लगी थी दुनिया को
सो मेरे काँधों से गर्दन उतार दी गई है
नुमू के आख़िरी इम्कान ढूँढने के लिए
मुझे ज़मीं भी ख़लाओं के पार दी गई है
तवील हिज्र की मुद्दत भी हम फ़क़ीरों को
ख़ुलूस-ए-दिल से ब-सद इख़्तिसार दी गई है
हमारी रूह तो कच्चे मकान में ख़ुश थी
तो क्यूँ बदन को हयात-ए-मज़ार दी गई है
ग़ज़ल
शबीह-ए-रूह कुछ ऐसे निखार दी गई है
संजय मिश्रा शौक़