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शब कि वो मजलिस-फ़रोज़-ए-ख़ल्वत-ए-नामूस था | शाही शायरी
shab ki wo majlis-faroz-e-KHalwat-e-namus tha

ग़ज़ल

शब कि वो मजलिस-फ़रोज़-ए-ख़ल्वत-ए-नामूस था

मिर्ज़ा ग़ालिब

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शब कि वो मजलिस-फ़रोज़-ए-ख़ल्वत-ए-नामूस था
रिश्ता-ए-हर-शम'अ ख़ार-ए-किस्वत-ए-फ़ानूस था

मशहद-ए-आशिक़ से कोसों तक जो उगती है हिना
किस क़दर या-रब हलाक-ए-हसरत-ए-पा-बोस था

हासिल-ए-उल्फ़त न देखा जुज़-शिकस्त-ए-आरज़ू
दिल-ब-दिल पैवस्ता गोया यक लब-ए-अफ़्सोस था

क्या कहूँ बीमारी-ए-ग़म की फ़राग़त का बयाँ
जो कि खाया ख़ून-ए-दिल बे-मिन्नत-ए-कैमूस था