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शब-हाए-ऐश का वो ज़माना किधर गया | शाही शायरी
shab-hae-aish ka wo zamana kidhar gaya

ग़ज़ल

शब-हाए-ऐश का वो ज़माना किधर गया

शौक़ देहलवी मक्की

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शब-हाए-ऐश का वो ज़माना किधर गया
वो ख़्वाब क्या हुआ वो फ़साना किधर गया

वो गुल-रुख़ों से हँसना-हँसाना किधर गया
उन को सता सता के रुलाना किधर गया

शब भर की मय-कशी का मज़े-दार वो ख़ुमार
और सुब्ह का वो वक़्त सुहाना किधर गया

बचपन के खेल-कूद जवानी के ज़ौक़-ओ-शौक़
वो ख़्वाब क्या हुआ वो फ़साना किधर गया

हर रोज़ रोज़-ए-ईद था हर शब शब-ए-बरात
वो दिन कहाँ गए वो ज़माना किधर गया

तेरी निगाह का न मिरे दिल का है पता
वो तीर क्या हुआ वो निशाना किधर गया

पहले तो कुछ भी क़द्र न जानी शबाब की
अब रो रहे हैं हम वो ज़माना किधर गया

जो पैकर-ए-वफ़ा थे सरापा-ख़ुलूस थे
वो लोग क्या हुए वो ज़माना किधर गया

मय्यत पे मेरी आ के वो ये पूछते हैं 'शौक़'
क्यूँ आज दर्द-ए-दिल का फ़साना किधर गया