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शब-ए-विसाल थी रौशन फ़ज़ा में बैठा था | शाही शायरी
shab-e-visal thi raushan faza mein baiTha tha

ग़ज़ल

शब-ए-विसाल थी रौशन फ़ज़ा में बैठा था

शबाब ललित

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शब-ए-विसाल थी रौशन फ़ज़ा में बैठा था
मैं तेरे साया-ए-लुत्फ़-ओ-अता में बैठा था

तमाम उम्र उसे ढूँडने में सर्फ़ हुई
जो छुप के मेरे बदन की गुफा में बैठा था

नई रुतों की हवा ले उड़ी लिबास उस का
वो कल तलक तो हरीम-ए-हया में बैठा था

दरून-ए-क़ाफ़िला आसार थे बग़ावत के
अजब सा ख़ौफ़ दिल-ए-रहनुमा में बैठा था

ज़रा सी बात ने औक़ात खोल दी उस की
वो कब से बंद हिसार-ए-अना में बैठा था

नज़र उठा के तुम ऐ काश देख ही लेते
मैं नज़्र-ए-जाँ लिए राह-ए-वफ़ा में बैठा था

लहू से उस के मिली दीन को बक़ा-ए-दवाम
वो क़ाफ़िला जो कभी कर्बला में बैठा था

उसी ने लूटी थी अबला की आबरू कल रात
सवेरे बन के जो मुखिया सभा में बैठा था

बस इक शिकस्त ने सारे नशे उतार दिए
वो ताजदार अलग सी हवा में बैठा था

चलाईं गोलियाँ जिस पर मुनाफ़िक़ों ने 'शबाब'
सफ़-ए-नमाज़ में याद-ए-ख़ुदा में बैठा था