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शब-ए-सुरूर नई दास्ताँ विसाल-ओ-फ़िराक़ | शाही शायरी
shab-e-surur nai dastan visal-o-firaq

ग़ज़ल

शब-ए-सुरूर नई दास्ताँ विसाल-ओ-फ़िराक़

सहबा वहीद

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शब-ए-सुरूर नई दास्ताँ विसाल-ओ-फ़िराक़
न फ़िक्र-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ दरमियाँ विसाल-ओ-फ़िराक़

मैं उस से बात करूँ भी तो किस हवाले से
कि मुस्तआ'र मकाँ में कहाँ विसाल-ओ-फ़िराक़

उसी के नाम पे जीते हैं और मरते हैं
यही है क़िस्सा-ए-आशुफ़्तगाँ विसाल-ओ-फ़िराक़

वो कह गया है कि आऊँगा मुंतज़िर रहियो
मैं मुब्तला-ए-यक़ीन-ओ-गुमाँ विसाल-ओ-फ़िराक़

वो पढ़ रहा था बड़े ग़ौर से लहू की सरिश्त
हर एक बूँद का सिर्र-ए-निहाँ विसाल-ओ-फ़िराक़

हवा-ए-सुब्ह न जाने कहाँ कहाँ ले जाए
शब-ए-मुराद शब-ए-दरमियाँ विसाल-ओ-फ़िराक़

मैं उस को हाथ लगाता भी किस तरह 'सहबा'
अजीब कश्मकश-ए-जाँ अज़ाँ विसाल-ओ-फ़िराक़