शब-ए-हिज्राँ में मत पूछो कि किन बातों में रहता हूँ
तसव्वुर बाँध उस का सुब्ह तक कुछ कुछ मैं कहता हूँ
जो देखो ग़ौर कर तो जुज़ ओ कुल बिल्कुल मुझी में है
कभी हूँ इक हुबाब-आसा कभी दरिया हो बहता हूँ
तिरे रुकने से प्यारे बस मिरा दम रुकने लगता है
नहीं तो बोलता तू बोलियाँ किन किन की सहता हूँ
नहीं मिलती है फ़ुर्सत ग़ैर उसे घेरे ही रहते हैं
कहूँ कुछ हाल-ए-दिल बस ढूँढता इतना सुबहता हूँ
ये जोश-ए-अश्क ने तूफ़ाँ उठाया है कि ऐ 'जुरअत'
कहे है किश्वर-ए-तन में तू कोई दम को ढहता हूँ
ग़ज़ल
शब-ए-हिज्राँ में मत पूछो कि किन बातों में रहता हूँ
जुरअत क़लंदर बख़्श