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शब-ए-हिज्र में याद आना किसी का | शाही शायरी
shab-e-hijr mein yaad aana kisi ka

ग़ज़ल

शब-ए-हिज्र में याद आना किसी का

मुर्ली धर शाद

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शब-ए-हिज्र में याद आना किसी का
सताए हुए को सताना किसी का

कभी प्यार की बातें वो चुपके चुपके
कभी नाज़ से रूठ जाना किसी का

वो भोली अदाएँ न क्यूँ याद आएँ
लड़कपन में था क्या ज़माना किसी का

कभी थी वो ग़ुस्से की चितवन क़यामत
कभी आजिज़ी से मनाना किसी का

वो दिल बन के दाम-ए-मोहब्बत में आया
कि ज़ुल्फ़ों में था आशियाना किसी का

नज़र लग गई मेरे दुश्मन की मुझ को
क़यामत हुआ रूठ जाना किसी का

खिलाएगा गुल रंग लाएगा ऐ 'शाद'
तुझे देख कर मुस्कुराना किसी का