शब-ए-हिज्र आह किधर गई कहूँ किस से नाला किधर गया
जो गुज़र गई वो गुज़र गई जो गुज़र गया वो गुज़र गया
जो तुम्हारी आँख से गिर पड़ा जो तुम्हारे दिल से उतर गया
वो ग़रीब जीते-जी मर गया वो कहाँ गया वो किधर गया
कोई अपने बचने का ढब नहीं कोई ज़िंदगी का सबब नहीं
मिरे पास दिल भी तो अब नहीं वो इधर गए ये उधर गया
कोई दर्द हो तो दवा करूँ न बने दवा तो दुआ करूँ
उसे क्या कहूँ उसे क्या करूँ कि मैं उन के दिल से उतर गया
उसे दिल-लगी का मज़ा मिला उसे आशिक़ी का मज़ा मिला
उसे ज़िंदगी का मज़ा मिला जो तिरी अदाओं पे मर गया
कोई दोस्त है कि ग़ुलाम है कोई ये भी तर्ज़-ए-कलाम है
वो कहाँ गया वो कहाँ गया वो किधर गया वो किधर गया
तिरे ज़ुल्म और सितम सहे तिरे जाँ-निसार भी हम रहे
न रक़ीब जिस को हर इक कहे कि तिरी जफ़ाओं से डर गया
रहे क्यूँ न सीने में दम ख़फ़ा ये नया सितम है नई जफ़ा
कहूँ क्या 'सफ़ी' कोई बेवफ़ा मिरे दिल को ले कर मुकर गया

ग़ज़ल
शब-ए-हिज्र आह किधर गई कहूँ किस से नाला किधर गया
सफ़ी औरंगाबादी