शायद मैं ज़िंदगी की सहर ले के आ गया
क़ातिल को आज अपने ही घर ले के आ गया
ता-उम्र ढूँढता रहा मंज़िल मैं इश्क़ की
अंजाम ये कि गर्द-ए-सफ़र ले के आ गया
नश्तर है मेरे हाथ में काँधों पे मय-कदा
लो मैं इलाज-ए-दर्द-ए-जिगर ले के आ गया
'फ़ाकिर' सनम-कदे में न आता मैं लौट कर
इक ज़ख़्म भर गया था इधर ले के आ गया
ग़ज़ल
शायद मैं ज़िंदगी की सहर ले के आ गया
सुदर्शन फ़ाख़िर