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शामिल-ए-कारवाँ न था राहगुज़ार था अजब | शाही शायरी
shamil-e-karwan na tha rahguzar tha ajab

ग़ज़ल

शामिल-ए-कारवाँ न था राहगुज़ार था अजब

अक़ील जामिद

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शामिल-ए-कारवाँ न था राहगुज़ार था अजब
राह में भी ग़ुबार था सर पे बार था अजब

पेश-ए-नज़र खड़ी रही मंज़िल-ए-जुस्तुजू मगर
हाथ में भी सकत न थी पाँव में ख़ार था अजब

हार जो दूसरों के थे साँप की मिस्ल तो न थे
तुम ने मिरे गले में जो डाला वो हार था अजब

मेरे लबों पे दहर का शिकवा जो था फ़ुज़ूल था
चूँकि दरून-ए-दिल मुझे दैर से प्यार था अजब

तूल-ए-शब-ए-फ़िराक़ सी दोनों की उम्र-ए-दोस्ती
'जामिद'-ए-ज़िंदा-तब-ए-रसा उस का भी यार था अजब