EN اردو
शाम से पहले तिरी शाम न होने दूँगा | शाही शायरी
sham se pahle teri sham na hone dunga

ग़ज़ल

शाम से पहले तिरी शाम न होने दूँगा

साबिर ज़फ़र

;

शाम से पहले तिरी शाम न होने दूँगा
ज़िंदगी मैं तुझे नाकाम न होने दूँगा

उड़ते उड़ते ही बिखर जाएँ पर-ओ-बाल ऐ काश
ताइर-ए-जाँ को तह-ए-दाम न होने दूँगा

बेवफ़ा लोगों में रहना तिरी क़िस्मत ही सही
इन में शामिल मैं तिरा नाम न होने दूँगा

कल भी चाहा था तुझे आज भी चाहा है कि है
ये ख़याल ऐसा जिसे ख़ाम न होने दूँगा

लगने दूँगा न हवा तुझ को ख़िज़ाँ की मैं 'ज़फ़र'
फूल जैसा तिरा अंजाम न होने दूँगा