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शाम-ए-ग़म से शब-ए-अंदोह से चश्म-ए-तर से | शाही शायरी
sham-e-gham se shab-e-andoh se chashm-e-tar se

ग़ज़ल

शाम-ए-ग़म से शब-ए-अंदोह से चश्म-ए-तर से

मुश्ताक़ अंजुम

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शाम-ए-ग़म से शब-ए-अंदोह से चश्म-ए-तर से
बाज़ आया मैं तिरी याद के उस लश्कर से

याँ शब-ओ-रोज़ है मतलब किसे ख़ैर-ओ-शर से
ज़िंदगी का है अजब सिलसिला सीम-ओ-ज़र से

जो तुझे चाहा बताना न बताया फिर भी
कब छुपा हाल-ए-दिल-ए-सोख़्ता नामा-बर से

बा'द-ए-तकमील हुई घर की हक़ीक़त मा'लूम
घर कहाँ बनता है दीवार से छत से दर से

मेहरबानों में तिरा नाम तो लिक्खा है मगर
ख़ूब वाक़िफ़ हूँ मिरी जान तिरे तेवर से

सर बचाता हूँ तो फिर पाँव निकल जाते हैं
ऐब इफ़्लास का छुपता ही नहीं चादर से

हिर्स की दौड़ से रहता हूँ अलग ऐ 'अंजुम'
फ़ैज़ पहुँचा है मुझे दर्स-ए-गह-ए-'क़ैसर' से