शाम-ए-ग़म अफ़्सुर्दा-ओ-हैराँ थे हम
लोग समझे बे-सर-ओ-सामाँ थे हम
तेज़ थी इतनी ज़माने की हवा
पैरहन-दर-पैरहन उर्यां थे हम
हम से बे-मा'नी गुरेज़-ओ-इख़्तिलाफ़
हम-नशीं दो रोज़ के मेहमाँ थे हम
आज अपनी शहरियत मश्कूक है
एक दिन इस मुल्क के सुल्ताँ थे हम
ज़िंदगी क्या हश्र का मैदान थी
अपनी अपनी फ़िक्र में ग़लताँ थे हम
मुन्कशिफ़ थे हम पे असरार-ए-जमाल
राज़-दार-ए-जल्वा-ए-जानाँ थे हम
थी हमीं से गर्मी-ए-महफ़िल 'क़दीर'
दास्तान-ए-ज़ीस्त के उनवाँ थे हम

ग़ज़ल
शाम-ए-ग़म अफ़्सुर्दा-ओ-हैराँ थे हम
एम ए क़दीर