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शाम-ए-फ़िराक़ सुब्ह-ए-दरख़्शाँ है आज-कल | शाही शायरी
sham-e-firaq subh-e-daraKHshan hai aaj-kal

ग़ज़ल

शाम-ए-फ़िराक़ सुब्ह-ए-दरख़्शाँ है आज-कल

रज़ा मुरादाबादी

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शाम-ए-फ़िराक़ सुब्ह-ए-दरख़्शाँ है आज-कल
हर अश्क जैसे नय्यर-ए-ताबाँ है आज-कल

यारब मता-ए-दर्द मोहब्बत की ख़ैर हो
फिर चश्म-ए-नाज़ सिलसिला-जुम्बाँ है आज-कल

अल्लाह-रे जज़्ब-ए-इश्क़ की पिंदार-ए-हुस्न-ए-दोस्त
मजरूह-ए-इल्तिफ़ात-ए-गुरेज़ाँ है आज-कल

बरपा है चश्म-ए-नाज़ में फिर हश्र-ए-इल्तिफ़ात
सच-मुच जफ़ा पे कोई पशेमाँ है आज-कल

लौ दे उठे हैं दीदा-ओ-दिल फ़र्त-ए-शौक़ से
मेहराब-ए-ज़िंदगी में चराग़ाँ है आज-कल