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शाम-ए-फ़िराक़ अपनी फ़रोज़ाँ न कर सके | शाही शायरी
sham-e-firaq apni farozan na kar sake

ग़ज़ल

शाम-ए-फ़िराक़ अपनी फ़रोज़ाँ न कर सके

सुग़रा सब्ज़वारी

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शाम-ए-फ़िराक़ अपनी फ़रोज़ाँ न कर सके
तारीक ज़िंदगी को दरख़्शाँ न कर सके

थे इस क़दर जुदाई के लम्हात सोगवार
कुछ भी तलाफ़ी-ए-ग़म-ए-हिज्राँ न कर सके

यूरिश ग़मों की ऐसी थी मुझ पे कि अल-अमाँ
कुछ राज़दारी-ए-ग़म-ए-पिन्हाँ न कर सके

थी इस क़दर नवाज़िश-ए-पैहम कि अल-हफ़ीज़
कुछ एहतिमाम-ए-वुसअत-ए-दामाँ न कर सके

अपनी ही ज़िंदगी थी कुछ ऐसी ख़िज़ाँ-नसीब
तुम भी हमारे दर्द का दरमाँ न कर सके