शाख़ों पर इबहाम के पैकर लटक रहे हैं
लफ़्ज़ों के जंगल में मअनी भटक रहे हैं
पाकीज़ा अख़्लाक़ मुसल्लत है जज़्बे पर
ख़्वाहिश की आँखों में काँटे खटक रहे हैं
मल्हारें गाते हैं मेंडक ताल किनारे
आसमान पर भूरे बादल मटक रहे हैं
मतले पर यादों की पौ सी फूट रही है
मन पर काले साँप अपने फन पटक रहे हैं
ख़ुश्बू की चोरी का दाग़ लगा है उन पर
सब गुल-बूटे अपने दामन झटक रहे हैं
ऐसी जिद्दत से हम को क्या मिल जाएगा
पढ़ने वाले हर मिसरा पर अटक रहे हैं
ग़ज़ल
शाख़ों पर इबहाम के पैकर लटक रहे हैं
मुज़फ़्फ़र हनफ़ी