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शाख़चा ख़ाक-ए-गुलिस्ताँ में पड़ा है यारो | शाही शायरी
shaKHcha KHak-e-gulistan mein paDa hai yaro

ग़ज़ल

शाख़चा ख़ाक-ए-गुलिस्ताँ में पड़ा है यारो

जलील हश्मी

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शाख़चा ख़ाक-ए-गुलिस्ताँ में पड़ा है यारो
उस से एहसान-ए-बहाराँ न उठा है यारो

तुम ने पूछा है न कुछ हम ने कहा है यारो
हादिसा हम पे जो गुज़रा है तो क्या है यारो

कर गया ख़ाक हमें रुख़्सत-ए-गुल का मंज़र
ज़ख़्म-ए-नज़्ज़ारा मगर अब भी हरा है यारो

मर्यम-ए-शाम खुले बाल फिर आती देखो
फिर मसीहा कोई सूली पे चढ़ा है यारो

रात अँधेरी सही मायूस नहीं नूर से हम
अश्क पलकों पे अभी काँप रहा है यारो

अब मिरी शब मिरे अश्कों से रहेगी रौशन
शाम के वक़्त दिया मेरा बुझा है यारो

सामने आते हो अब अजनबियों की सूरत
ये भी शायद कोई यारी की अदा है यारो

पाँव हैं ख़ाक पे ख़ुर्शीद पे साया उस का
'हशमी' खोज में ये किस की चला है यारो