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शाख़-ए-गुलशन पे था जो ठिकाना गया | शाही शायरी
shaKH-e-gulshan pe tha jo Thikana gaya

ग़ज़ल

शाख़-ए-गुलशन पे था जो ठिकाना गया

मोहम्मद अज़हर शम्स

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शाख़-ए-गुलशन पे था जो ठिकाना गया
उस परिंदे का तो आब-ओ-दाना गया

आँधियों की है ज़द पर घरौंदे यहाँ
यानी हमदर्दियों का ज़माना गया

ज़र्द मौसम की आमद ने बदला समाँ
सब्ज़-ए-गुलसिताँ का ज़माना गया

मेरी हसरत ने ओढ़ी जो लफ़्ज़ी क़बा
मेरे ख़ामोश लब का तराना गया

शम-ए-बज़्म-ए-तरब रात तन्हा रही
कोई परवाना आख़िर क्यूँ आ न गया

यूँ हुई शाख़ से हिजरत-ए-ताइराँ
मर्सिया रह गया चहचहाना गया

यूँ न कमज़ोर रिश्ते की बुनियाद थी
आते जाते यूँ ही आना जाना गया