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शाह-ए-आलम को सर-ए-आम सुना बैठा हूँ | शाही शायरी
shah-e-alam ko sar-e-am suna baiTha hun

ग़ज़ल

शाह-ए-आलम को सर-ए-आम सुना बैठा हूँ

ख़ालिद इक़बाल यासिर

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शाह-ए-आलम को सर-ए-आम सुना बैठा हूँ
मेरे मौला तिरी चौखट से लगा बैठा हूँ

मुझे मालूम हैं आदाब-ए-नशिस्त-ओ-बरख़ास्त
तिरे दरबार में इक उम्र उठा बैठा हूँ

इसी मौसम की तमन्ना थी कई बरसों से
बादबाँ खोलने थे और गिरा बैठा हूँ

भूल जाना था जिसे सब्त है दिल पर मेरे
याद रखना था जिसे उस को भुला बैठा हूँ

बात कैसे मैं करूँ आँख मिला कर उस से
सामने जिस के निगाहों को झुका बैठा हूँ

वापसी का कोई रस्ता नहीं मिलता 'यासिर'
कश्तियाँ अपनी मैं पहले ही जला बैठा हूँ