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सेर-शिकमी का भूक से है मिलाप | शाही शायरी
ser-shikami ka bhuk se hai milap

ग़ज़ल

सेर-शिकमी का भूक से है मिलाप

क़य्यूम नज़र

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सेर-शिकमी का भूक से है मिलाप
रूह की तिश्नगी सँभालिये आप

रक़्स-फ़रमा हुई वो सीम-तनी
बे-ज़री की बहार ने दी थाप

शहर वाले हैं खोलता लावा
गली-कूचों से उठ रही है भाप

ना-मुरादी के बढ़ते सिलसिले को
नए पैमाना-ए-सितम से नाप

इस को नमरूद का तक़ाज़ा जान
आतिश-ए-हुस्न को न बैठ के ताप

ख़ामुशी तो इलाज-ए-दर्द नहीं
बात बनती नहीं है आप से आप

तू भी कह दे जो तेरे जी में है
सुन रहा हूँ मैं हर अनाप-शनाप

कोई आया न गोशा-ए-दिल तक
शाह-रह पर सुनी थी पाँव की चाप

यूँ ही शायद मिज़ाज बदले तिरा
मेरे अशआ'र अपने नाम से छाप

वक़्त, मौसम 'नज़र' निगाह में रख
किस ने तुझ से कहा ये राग अलाप