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सेहन-ए-चमन में जाना मेरा और फ़ज़ा में बिखर जाना | शाही शायरी
sehn-e-chaman mein jaana mera aur faza mein bikhar jaana

ग़ज़ल

सेहन-ए-चमन में जाना मेरा और फ़ज़ा में बिखर जाना

ज़ेब ग़ौरी

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सेहन-ए-चमन में जाना मेरा और फ़ज़ा में बिखर जाना
शाख़-ए-गुल के साथ लचकना सबा के साथ गुज़र जाना

सेहर-भरी दो आँखें मेरा पीछा करती रहती हैं
नागिन का वो मुड़ कर देखना फिर वादी में उतर जाना

ज़ख़्म ही तेरा मुक़द्दर हैं दिल तुझ को कौन सँभालेगा
ऐ मेरे बचपन के साथी मेरे साथ ही मर जाना

सूरज की इन आख़िरी मद्धम किरनों को गिन सकते हैं
दिन का वो मोती सा चमकना फिर पानी में उतर जाना

यहीं कहीं सहरा में ठहर जा दम लेने की बात नहीं
ख़ाक सिवा रक्खा ही क्या है यहाँ से और किधर जाना

उस से अब दश्त-ए-इम्काँ के सफ़र-हज़र का पूछना क्या
जिस ने राहगुज़र के घने पेड़ों को भी दर्द-ए-सर जाना

एक निहाँ-ख़ाने के ताक़ पर आईना रक्खा था 'ज़ेब'
एक झलक सी अपनी देखना और वो मेरा डर जाना