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सज़ा बग़ैर अदालत से मैं नहीं आया | शाही शायरी
saza baghair adalat se main nahin aaya

ग़ज़ल

सज़ा बग़ैर अदालत से मैं नहीं आया

सहर अंसारी

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सज़ा बग़ैर अदालत से मैं नहीं आया
कि बाज़ जुर्म-ए-सदाक़त से मैं नहीं आया

फ़सील-ए-शहर में पैदा किया है दर मैं ने
किसी भी बाब-ए-रिआयत से मैं नहीं आया

उड़ा के लाई है शायद ख़याल की ख़ुशबू
तुम्हारी सम्त ज़रूरत से मैं नहीं आया

तिरे क़रीब भी याद आ रहे हैं कार-ए-जहाँ
बहुत क़लक़ है कि फ़ुर्सत से मैं नहीं आया

गुज़र गए यूँ ही दो चार दिन और इस के ब'अद
यही हुआ कि नदामत से मैं नहीं आया

हमेशा साथ रहा है 'सहर' मेरा सूरज
गुज़र के वादी-ए-ज़ुल्मत से मैं नहीं आया