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सवाद-ए-मंज़र-ए-ख़्वाब-ए-परेशाँ कौन देखेगा | शाही शायरी
sawad-e-manzar-e-KHwab-e-pareshan kaun dekhega

ग़ज़ल

सवाद-ए-मंज़र-ए-ख़्वाब-ए-परेशाँ कौन देखेगा

जुंबिश ख़ैराबादी

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सवाद-ए-मंज़र-ए-ख़्वाब-ए-परेशाँ कौन देखेगा
असीर-ए-ज़ुल्फ़ हो कर शाम-ए-हिज्राँ कौन देखेगा

गुलों की दिलकशी फ़स्ल-ए-बहाराँ कौन देखेगा
न होंगे जब हमीं रंग-ए-गुलिस्ताँ कौन देखेगा

शब-ए-ग़म तुम न आए ग़म नहीं ग़म है तो ये ग़म है
मिरे दामन पे अश्कों का चराग़ाँ कौन देखेगा

गुदाज़-ए-शम्अ' की सूरत जवाज़-ए-ग़म करो पैदा
ये परवानो तुम्हारा सोज़-ए-पिन्हाँ कौन देखेगा

क़यामत में लबों पर शिकवा-हा-ए-पुर-जफ़ा ला कर
तिरी मासूम फ़ितरत को पशेमाँ कौन देखेगा

यक़ीनन शौक़ के पर्दों को भी आँखों से उठना है
नहीं तो हश्र में कल रू-ए-जानाँ कौन देखेगा

गरेबाँ फाड़ कर 'जुम्बिश' चलो फूलों की महफ़िल में
ये सहरा है यहाँ हाल-ए-परेशाँ कौन देखेगा