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सौ उलझनों के बीच गुज़ारा गया मुझे | शाही शायरी
sau uljhanon ke beach guzara gaya mujhe

ग़ज़ल

सौ उलझनों के बीच गुज़ारा गया मुझे

नबील अहमद नबील

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सौ उलझनों के बीच गुज़ारा गया मुझे
जब भी तिरी तलब में सँवारा गया मुझे

कम हो सका न फिर भी मिरा मर्तबा अगर
पस्ती में आसमाँ से उतारा गया मुझे

सुलझी न एक बार कहीं ज़ुल्फ़-ए-ज़िंदगी
गरचे हज़ार बार सँवारा गया मुझे

अपने मफ़ाद के लिए मैदान-ए-जंग में
जीता गया कभी कभी हारा गया मुझे

धोया गया बदन मिरा अश्कों के आब से
मेरे लहू के साथ निखारा गया मुझे

फिर भी रवाँ-दवाँ हूँ मैं मौज-ए-हयात में
सौ बार गरचे दहर में मारा गया मुझे

रख कर चलूँगा जान हथेली पे मैं 'नबील'
मक़्तल से जिस घड़ी भी पुकारा गया मुझे