सर्व-ए-गुलशन पर सुख़न उस क़द का बाला हो गया
हर निहाल इस शर्म सीं जंगल का पाला हो गया
आवता है ये बहा हो आँख सें दामन तलक
तिफ़्ल-ए-अश्क इस आज-कल में क्या ज्वाला हो गया
जब सीं उस अल्मास की पहुँची का है आँसू में अक्स
तब सीं हर तार-ए-फ़लक हीरों का माला हो गया
दिल जिगर की फकड़ियाँ आहों के तारों में पिरो
बैठ कर दोकान-ए-ग़म पर फूल वाला हो गया
अश्क-ए-बाराँ आह बिजली अश्क की काली घटा
माह-रू बन किस तरह का बरश्गाला हो गया
बाग़ में सरमा था और थी याद-ए-दिलदार-ए-दो-रंग
मुझ कूँ हर बर्ग-ए-गुल-ए-रअना दोशाला हो गया
नींद सीं खुल गईं मिरी आँखें सो देखा यार कूँ
या अँधारा इस क़दर था या उजाला हो गया
हिज्र की मठ में तसव्वुर उस ग़ज़ाली चश्म का
इश्क़ के बैरागियों को मिर्ग-छाला हो गया
भर रहा है बस कि दूद-ए-आह मेरा ऐ 'सिराज'
आसमाँ जियूँ पर्दा-ए-फ़ानूस काला हो गया
ग़ज़ल
सर्व-ए-गुलशन पर सुख़न उस क़द का बाला हो गया
सिराज औरंगाबादी