सरसब्ज़ मौसमों का असर ले गया कोई
थोड़ी सी छाँव दे के शजर ले गया कोई
मेरा दिफ़ाअ मेरा हुनर ले गया कोई
दस्तार जब बचाई तो सर ले गया कोई
क्या क्या न शौक़-ए-दीद थे आँखों में ख़ेमा-ज़न
वो रू-ब-रू हुए तो नज़र ले गया कोई
यूँ भी हुआ है जश्न-ए-बहाराँ के नाम पर
शाख़ें तराश डालीं शजर ले गया कोई
आँखों के आर-पार जहालत की धूप है
सर से रिदा-ए-इल्म-ओ-हुनर ले गया कोई
लहरों में इज़्तिराब न मौजों में पेच-ओ-ताब
दरिया-ए-दिल से मेरे भँवर ले गया कोई
'अख़्तर' निगार-ख़ाना-ए-दिल दीदनी है अब
दीवारें तोड़ दी गईं दर ले गया कोई
ग़ज़ल
सरसब्ज़ मौसमों का असर ले गया कोई
सुल्तान अख़्तर