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सरगर्म-ए-तमाशा था दिल महव-ए-अदा बरसों | शाही शायरी
sargarm-e-tamasha tha dil mahw-e-ada barson

ग़ज़ल

सरगर्म-ए-तमाशा था दिल महव-ए-अदा बरसों

मीर बशीर

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सरगर्म-ए-तमाशा था दिल महव-ए-अदा बरसों
समझा ही नहीं नादाँ मफ़्हूम-ए-वफ़ा बरसों

आशुफ़्ता-मिज़ाज आख़िर जाएँ तो कहाँ जाएँ
हर गाम पे यारों ने धोका ही दिया बरसों

इक बार गुज़रता है दिल दर्द की राहों से
रग रग से तड़पती है तासीर-ए-दुआ बरसों

वो आलम-ए-मदहोशी वो मसती-ए-रिंदाना
गुल-रंग जवानी थी क्या होश-रुबा बरसों

आग़ोश-ए-तसव्वुर में सौ बार गो आते हैं
लेकिन न क़रीब आए वो जान-ए-हया बरसों

गो 'मीर' के नालों में तासीर-ए-जुनूँ कम थी
ऐसा भी कहाँ होगा अब शोला-नवा बरसों