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सर्फ़-ए-ग़म हम ने नौजवानी की | शाही शायरी
sarf-e-gham humne naujawani ki

ग़ज़ल

सर्फ़-ए-ग़म हम ने नौजवानी की

मीर असर

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सर्फ़-ए-ग़म हम ने नौजवानी की
वाह क्या ख़ूब ज़िंदगानी की

अपनी बीती अगर मैं तुझ से कहूँ
बात निबड़े न इस कहानी की

तेरे दाग़ों की ऐ ग़म-ए-उल्फ़त
ख़ूब हम ने भी बाग़बानी की

जूँ निगह दिल गया है आँखों की राह
गरचे हम ने निगाहबानी की

किस के हाँ तुम करम नहीं करते
कभू ईधर न मेहरबानी की

अपने नज़दीक दर्द-ए-दिल मैं कहा
तेरे नज़दीक क़िस्सा-ख़्वानी की

हर्ज़ा-गोई से मुझ को दी है नजात
हैगी मिन्नत ये बे-ज़बानी की

नहीं ताक़त कि दम निकाल सकूँ
अब ये नौबत है ना-तवानी की

'असर' इस हाल पे भी जीता है
क्या कहूँ उस की सख़्त-जानी की