सरापा हुस्न-ए-समधन गोया गुलशन की क्यारी है
परी भी अब तो बाज़ी हुस्न में समधन से मारी है
खिंची कंघी गुँधी चोटी जमी पट्टी लगा काजल
कमाँ-अबरू नज़र जादू निगह हर इक दुलारी है
जबीं महताब आँखें शोख़ शीरीं लब गुहर दंदाँ
बदन मोती दहन ग़ुंचे अदा हँसने की प्यारी है
नया कम-ख़्वाब का लहँगा झमकते ताश की अंगिया
कुचें तस्वीर सी जिन पे लगा गोटा कनारी है
मुलाएम पेट मख़मल सा कली सी नाफ़ की सूरत
उठा सीना सफ़ा पेड़ू अजब जोबन की नारी है
सुरीं नाज़ुक कमर पतली ख़त-ए-गुलज़ार रूमा दिल
कहूँ क्या आगे अब इस के मक़ाम-ए-पर्दादारी है
लटकती चाल मध-माती चले बिच्छों को झनकाती
अदा में दिल लिए जाती अजब समधन हमारी है
भरे जोबन पे इतराती झमक अंगिया की दिखलाती
कमर लहंगे से बल खाती लटक घुँघट की भारी है
ग़ज़ल
सरापा हुस्न-ए-समधन गोया गुलशन की क्यारी है
नज़ीर अकबराबादी