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सराब-ए-ज़ीस्त में सिमटा हुआ हूँ | शाही शायरी
sarab-e-zist mein simTa hua hun

ग़ज़ल

सराब-ए-ज़ीस्त में सिमटा हुआ हूँ

मुख़्तार हाशमी

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सराब-ए-ज़ीस्त में सिमटा हुआ हूँ
समुंदर हूँ मगर क़तरा-नुमा हूँ

ख़ुदा से मिल के ख़ुद मैं आ गया हूँ
अब आईने को सज्दा कर रहा हूँ

तुम्हें भी दोस्त अपना जानता हूँ
बड़ी ख़ुश-फ़हमियों में मुब्तला हूँ

जुनूँ हूँ या ख़िरद की इंतिहा हूँ
न समझा आज तक ख़ुद भी मैं क्या हूँ

हक़ीक़त को फ़साना कैसे कह दूँ
फ़साने को हक़ीक़त कह चुका हूँ

ज़माना मुझ में ख़ुद को देखता है
हज़ारों सूरतों का आइना हूँ