सर-ता-ब-क़दम ख़ून का जब ग़ाज़ा लगा है
तब ज़ख़्म की गहराई का अंदाज़ा लगा है
ये रात का जंगल ये ख़मोशी ये अँधेरा
पत्ता भी जो खड़का है तो आवाज़ा लगा है
मालूम नहीं मेरा खुला दश्त कहाँ है
सहरा का ख़ला भी मुझे दरवाज़ा लगा है
एहसान ये कुछ कम तो नहीं गुल-बदनों का
जो ज़ख़्म है सीने पे गुल-ए-ताज़ा लगा है
यकजा हुए यादों के उमडते हुए पैकर
फिर मुंतशिर अपना मुझे शीराज़ा लगा है

ग़ज़ल
सर-ता-ब-क़दम ख़ून का जब ग़ाज़ा लगा है
हज़ीं लुधियानवी